९ जून, १९७१

 

   विरोधी शक्तियोंकी रेलपेल है । पागल रेलपेल । लेकिन 'उत्तर' आने लगा है -- यह एक जरा-सा आरंभ है । हर एकके अंदर मानों एक तूफान था -- वह पूरी तरह गया नहीं है । वह सब, जिसके बारेमें यह माना जाता था कि इसे जीत लिया गया है और धकेल दिया गया है, वह बड़ी तेजीसे वापिस आता है - और सबसे अधिक अप्रत्याशित लोगों- मे -, और सब प्रकारके रूपोंमें और सबसे बढ़कर स्वभावमें, ओह! संदेह, विद्रोह और ऐसी सब चीजें...

 

 ( मौन)

 

   मुझसे समस्त भारतके लिये एक संदेश मांगा गया था । मैंने यह दिया है (माताजी शिष्यको कागज देती हैं) :

 

 परम प्रभो, 'शाश्वत सत्य'

 हम केवल 'तेरी' ही आज्ञाका पालन करें

 और तेरे 'सत्य' के अनुसार जियें ।

 


   'मिथ्यात्व' की भयंकर रेलपेल है । ऐसा लगता है मानो हर आदमी, हर जगह झूठ बोल रहा है, एकदम अप्रत्याशित ओग .मी -- हर जगह, हर जगह, हर जगह । और मेरे लिये यह जीवित वस्तु थी ( माताजी देखनेकी मुद्रा करती हैं) । ओह! भयंकर । तुम कल्पना नहीं कर सकते ... जरा दाईं ओरको मरोड़, जरा बाईं ओरको मरोड़, जरा-सा बरतन... कोई चीज, कोई भी चीज, कुछ भी सीधा नहीं है । तव शरीर अपने- आपसे पूछता हैं : ''तुम्हारा मिथ्यात्व कहां है? '' उसने अपने-आपको देखा और उसने पुरानी कहानी देखी. ''जब कमी कोई जरूरी बात हों, केवल तमी प्रभुको बूलाना चाहिये! ( माताजी हंसती हैं) तुम सारे समय प्रभु- के साथ रहनेकी आशा नहीं कर सकते! '' तब उसे एक अच्छी-सी थपकी मिली!.. वह आक्रमणशील न थी, उसमें विनयका भाव था -- उसे एक अच्छा -भ-पत लगा ।

 

   वह अप्रिय वस्तुओंका भयंकर क्रोधोन्माद था -- अप्रियसे बढ़कर; सचमुच, सचमुच दुष्ट, अशुभ और विनाशकारी । वह क्रोधोन्माद था जबतक कि समझ नहीं आ गयी । तहां सारे शरीरमें यह प्रतीति आयी, सभा कोषाणुओंमें, सब जगह, सारे समय -- बात यहांतक पहुंच गयी कि मै खाते समय निगलतक न सकती थी--, यह तबतक रहा जबतक हर चीज- मे, हर एक चीजमें यह समझ नहीं आ गयी. मेरा अस्तित्व केवल भगवानके द्वारा है, मै भगवानके द्वारा रहे बिना जी ही नहीं सकतीं. और मैं भगवान् हुए बिना स्व भी नहीं बन सकती । इसके बाद चीजें ठीक होने लगी । अब शरीरने समझ लिया खै ।

 

 (लंबा मौन)

 

 तुम्हें कुछ नहीं पूछना? कुछ नहीं कहना?

 

      मुझे लगता है कि नियति खराब है ।

 

नहीं, यह सच नहीं है । यह 'मिथ्यातब' का भाग है, यह वही ''मिथ्यात्व' है । कोई बुरी निर्यात नहीं है, यह एक झांसा इस ! यह वास्तविक 'मिथ्यात्व' है... । यह बिलकुल सच नहीं है, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं ।

 

   तो लो, यह बात तुम्हें एक उदाहरण दिखाती है बस ए_सा ही है -- सब जगह ऐसा ही है (माताजी मानों चंगुलमें पकड़नेकी मुद्रा करती है) । मुझे तो ऐसा लगता है कि मैं ऐसे राक्षस देखती हू जौ डायनकी तरह

 

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पंजे फैलाये सबको पकड़नेकी कोशिश करते है! ओह! तुम्हें देखना चाहिये और फिर हंसना चाहिये -- एक असभ्य बच्चेकी तरह जीभ दिखानी चाहिये ।

 

(लंबा मौन)

 

    बहरहाल, हमपर अच्छी तरह हमला हो रहा है !

 

ओह!... मै कहती हू, बड़ी भीड़ थी लेकिन कोई बात नहीं... तुम्हें ऊपर उठना चाहिये, और फिर... (ऊपर देखनेकी मुद्रा) ।

 

  मैंने तुमसे जो कहा 'सत्य' है, वही एकमात्र उपचार है ।

 

केवल भगवानके लिये ही जीना,

केवल भगवानदुरा  ही जीना,

केवल भगवान्की सेवाके लिये ही जीना,

केवल... भगवान् बनकर ही जीना ।

 

  तो यह रहा ।

 

  यहां ''तुम'' नहीं है, ''प्रतीक्षा करनी चाहिये'' नहीं है, ''वह अपने समय- पर आयेगा'' नहीं है... ये सब चीजें, जो बहुत तर्कबुद्धि संगत हैं, अब अस्तित्व नहीं रखती -- यह 'वह' है (माताजी मुट्ठी नीचे करती है) - एक तलवारकी धारकी तरह । बस 'यही' है । हर चीज और सभी चीजोंके बावजूद 'वही' : भगवान् - केवल भगवान् । समस्त दुर्भाव और विद्रोहका यह सब कड़ा... और वह सब (माताजी तर्जनी उठाकर सीधी रखती है) बुहारकर फेंक दिया जाना चाहिये । और जो यह कहता है कि वह मर जायगा या 'उस' के द्वारा मार दिया जायगा वह है अत्कार -- 'महाशय अहंकार' जो चाहते हैं कि उन्हें सच्ची सत्ता मान लिया जाय ।

 

  लेकिन शरीरने सीख लिया है कि अहंके बिना भी वह जो है वह है, वह जो कुछ है यह भगवानकि 'इच्छा' सें है अहंसे नहीं -- हम भागवत 'इच्छा' से हैं कारण जीते है, अहंके कारण नहीं । अहं साधन था - सदियोतक साधन रहा --, अब वह बेकार है, उसका समय बीत गया । अब... (माताजी मुट्ठी नीचे लाती है) चेतना भगवान् है, शक्ति, वह भगवान् है; क्रिया, वह भगवान् है; व्यक्तित्व, वह मी भगवान् है ।

 

   और शरीरने अच्छी तरह समझ लिया है, अनुभव कर लिया है; ''उपलब्ध'' कर लिया है, ''समझ'' लिया है कि अलग व्यक्ति होनेका भाव एकदम बेकार चैत, एकदम बेकार । उसके जीवनके लिये यह जरा भी

 

अनिवार्य नहीं है, यह बिलकुल व्यर्थ है । वह एक और ही शक्तिके द्वारा, एक और संकल्पदुरा जीता है, जो व्यक्तिगत नहीं है : वह है भागवत संकल्प । और उसे जो होना चाहिये, वह उसी दिन बनेगा जब वह अनुभव करेगा कि उसमें और भगवान्में कोई फर्क नहीं है । बस यही ।

 

   बाकी सब मिथ्यात्व है, -- मिथ्यात्व, मिथ्यात्व और मिथ्यात्व, जिसे गायब हो जाना चाहिये । केवल एक ही सद्वस्तु है, केवल एक ही जीवन है, केवल एक ही चेतना है (माताजी मुट्ठी नीचे लाती हैं) : वह है भगवान् ।

 

 

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